'क्या आज़ाद भारत, सिर्फ एक जुमला है' @ ✒गुरु बलवन्त गुरुने⚔

'आज़ाद भारत, सिर्फ एक जुमला' @ गुरु बलवन्त गुरुने⚔

© क्या आज़ाद भारत, सिर्फ एक जुमला है।  यह जुमला क्यों है ?  आइये इस का इतिहास देखें।

हम सब इस गलत फ़हमी में हैं की 1947 में भारत आज़ाद हुआ। जी नहीं, यह सत्य नहीं है।

 भारत आज़ाद नहीं हुआ लेकिन वह एक सत्ता परिवर्तन के दौर से गुजरा। बस यही सत्य है। 

मैं पुन्ह कहता हूँ के भारत एक सत्ता परिवर्तन के दौर से तो अवश्य गुजरा, लेकिन व्यवस्था जस की तस ही रही, और आज भी कायम है ।  इस में नया कुछ भी नहीँ था क्यों की सत्ता परिवर्तन तो भारत में सदियों से होता आ रहा है।

इसे ज़रा क्रमबद्ध देखें।

 भारत के लम्बे इतिहास पे यदी हम नज़र डालें, और इतिहास को राजाओं या आक्रमणकारियों के नाम और तिथियों से अलग कर के देखें, तो हम पाएं गे की यह लम्बी कहानी समझना कोई मुश्किल काम नहीं।

भारत शुरू में, यानि सदियों पहले, छोटे छोटे ग्राम राज्यों का उपनिवेश था। फिर यह छोटे छोटे  गांव, वक्त के चलते,  गाँव-समूहों में,  यानी  जनपदों में बदल गये। इन जनपदों पर जन नायकों का राज था, यानि हर जनपदधिकारी अपनी काबलियत के बल पर ही जनपद संचालन का काम करता था।

फिर जनपदधिकारी सत्ता लोलुप हो गए, तथा परिवारवाद से ग्रसित हो गए। राज्य वर्ग और पुरोहित वर्ग की मिलभगत से  यही जनपद  छोटे छोटे राज्योँ में बदल गए, यानी सत्ता अब राजाओं रजवाड़ों के हाथों  में चली गयी।

इस काम को सफलता पूर्वक करने के लिये राजाओं का सम्बन्ध भगवान से तथा सूर्य और चन्द्रमाँ तक से  जोड़ दिया गया। चन्द्र वंशी, सूर्यवंशी जैसे नाम गढे गए,  और राज्यवर्ग को एक खास भगवतीय और मिथ्याभासी महिमाम्ण्डल में स्थापित कर दिया गया।
अब भारतीय उपनिवेश छोटे छोटे सम्रद्ध, अस्मृध, सुप्रबन्धित या कुप्रबन्धित राज्यों के  हजूम में बदल गया।

फ़िर दौर शुरू हुआ सिंधु पार से आने वाले हमलावरों का।

आगे की कहानी में है भारत पर फारसियों और तुर्कों द्वारा हमला होंना,  सत्ता का फारसियों और तुर्कों के हाथों में चले जाना, उस के बाद मुग़लों का हमला, (बाबर का लोधियों पर हल्ला) और उपरांत उस के भारत का मुगलों के हाथ चले जाना।

ज़रा ठन्डे दिमाग से सोचें, काहे के सूर्यवंशी और काहे के चन्द्रवंशी, यदि यह सत्य होता तो भारतीय  राजाओं महाराजाओं ने अकबर जहांगीर इत्यादि को अपने वंश की कन्याएं कभी न ब्याही होती। ऐसा होने पर सूर्य और चन्द्र भगवान कुपित होते, लेकिन इस के विपरीत इस राह पे चलने वाले रजवाड़ों को सुल्तानों का संरक्षण मिला, वह फले फूले, और उन के कथाकथित वंशदेव, सूर्य और चन्द्रमा, दोनों ही ख़फ़ा नहीं हुए।

फिर वक्त के चलते मुग़लों के हाथों  से सत्ता अंग्रेजों के हाथ में चली गयी।  अंग्रेजों ने मुग़लों के बाद उपनिवेश को सुनियोजित तो किआ, लेकिन साथ ही  अंग्रेजों ने भारत को दबा कर लूटा। इस लूट को व्यवस्थित करने के लिए 17000 किलोमीटर लम्बे सड़क मार्ग बनाये  गए और 48000 किलोमीटर लम्बी रेललाइनें बिछाई गयी।

इस के इलावा भारतीय शाशकों से एक विधिवत तरीके से उन के राज्य हथिया लिए, जिस में साम, दाम, दण्ड, भेद, सभी का प्रयोग किया गया। यहां तक की ऐसे कानून बनाये, जिस के चलते किसी भी राज्य के बाँझ होने पर उस राज्य को गोरे अपने सम्राज्य में मिला लेते, या फिर bad governance के बहाने डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स (Doctrine of Lapse)   के नाम पर, किसी भी राज्य को गोरे अपने कब्ज़े में ले लेते।

इस कुचक्र से वही रजवाड़े बचे, जिन्होंने  अंग्रेजों की तन मन धन से सेवा की, और उन की ग़ुलामी स्वीकार की।  गोरों को खुश करने के लिये उन्हें हीरे मोती, शराब कबाब और उन की कदम-बोसी ही नहीं की, बल्कि अपनी स्त्रियां तक भी उन्हें पेश कर दी। पंजाब, राजस्थान और मध्य भारत के कई रजवाड़े इस कुचक्र में शामिल रहे।

उदहारण के तौर पे अंग्रेज़ की जूता-बोसि करते हुए ऐसा बदचलन चरित्र भी पेश हुआ, जब अमृतसर के जलिआंवाला बाग़ काण्ड में अनेकों भारतियों के निर्मम हत्याकाण्ड के बाद, हत्यारे जनरल डायर की मेहमाननवाज़ी अमृतसर के ही एक सरदार परिवार ने की।  उस परिवार ने डायर के सन्मान में प्रीतिभोज दे कर बेशर्मी और गद्दारी की एक नई मिसाल कायम की। अब और इस से बड़ी सरदार के किरदार की गिरावट भला क्या हो सकती है ? ऐसे सरदार को देश का गद्दार नहीं तो और भला क्या कहें गे, लेकिन भृष्ट व्यवस्था के चलते उस ही परिवार के कुछ लोग स्वतन्त्र भारत में मंत्री तक बने।

चलिये, बात को पुन्ह क्रमब्धत्ता पे लाते हैं। अँगरेज़ के शाशन के दौरान ही द्वित्य विश्वयुद्ध छिड़ गया, जिस के उपरांत, और जिस के कारण, अंग्रेजों की आर्थिक कमर टूट गयी, और उन्हें यह एहसास हुआ कि अब भारत जैसे उपनिवेश में  वह ज्यादा न टिक पाएं गे।
इस के चलते भगत सिंह जैसे क्रांतीकारियों को फांसी पे लटकाया गया, और उपरांत क्रन्तिकारियों की क़ुरबानी सदक़ा, अँगरेज़ ने भारत छोड़ने का मन बना ही लिया।

लेकिन याद रहे की सभी क्रांतिकारियों का वध किया गया, और त्रासदी यह की सत्ता एक अंग्रेज़, ए.ओ. ह्यूम्ज़ द्वारा स्थापित, और भूरे अंग्रजों द्वारा संचालित, कांग्रेस पार्टी के हाथों चली गयी।

अब एक नई पॉलिटिकल कलास का जन्म हुआ, यानी के खद्दर धारी, सादगी का नाटक करने वाले लेकिन महंगी जीवनशैली जीने वाले राजनेताओं की भृष्ट, दोगली और चरित्रहीन कलास। अय्याशी और मनमर्ज़ी का एक नवदौर शुरू हुआ, और साथ ही शुरू हुई भारतीय नेताओं में किसी भी कीमत पर सत्ता पाने की, और सत्ता में बने रहने की एक अन्धी दौड़।
इस अन्धी दौड़  के चलते, बहुत पैंतरेबाज़ी हुई, जिस के चलते एक कवि-ह्रदय लेकिन शातिर-दिमाग राजनेता ने इलाहाबाद  में गाय का मुद्दा राजनितिक मुद्दा बना दिया। फ़िर गाय का मुद्दा दहका कर सत्ता, संघियों की राजनितिक शाखा, जिसे आज लोग भाजपा के नाम से जानते हैं, के हाथों चली गयी।

सत्ता फिर कुछ बरसों बाद कांग्रेस के हाथ आई। इस दौरान कांग्रेसियों ने  खालिस्तान का मुद्दा दहकाया, जिस के चलते सिक्खों को पहले आतंकवादीयों के रंग में रंग दिया गया, खालिस्तान का निशान बुलंद किया गया, और फिर हरिमंदिर पे हल्ला बोला गया। फ़िर हुआ इंदिरा गांधी का कत्ल, और उपरांत दिल्ली दंगे।
नतीजा यह हुआ कि एक पायलट, जिस ने कभी नायब तहस्लदारी भी नहीं की थी, भारत का शाशक बन गया।

अब कांग्रेस फ़िर से सत्ता पे काबिज़ थी।
इस के तोड़ के तौर पर पुन्ह,  विपक्ष के एक शातिर रहनुमां ने मन्दिर और  मस्जिद का मुद्दा दहका दिया, और उस के बाद जो हुआ, वह आज भी हो रहा है, आप से कुछ छिपा नहीं।

यानी कुल मिला कर भारतीय इतिहास के इस लम्बे दौर में, तुर्कों से ले कर आज तक, रजवाड़ों, नेताओं और उन के कुत्ते झाडूबरदार सरदारों या चमचों का गन्दा खेल जारी है।

यह खेल है,   सत्ता पे काबिज़  लोगों की लगातार  झाड़ूबरदारी करते रहना, यानी  देश की परवाह किये बिना सत्ता की जूतियाँ चाटते रहना, और सत्ता की छोटी मोटी हड्डियों को चूस कर दिल बहलाते रहना।  इस सब के चलते भृष्ट साशकों द्वारा लोगों का सोशन बढ़ता ही चला जा रहा है।

एक तरफ झारखण्ड में चावल के दाने न मिलने पर लोग भूखे मर रहे हैं, तो दूसरी तरफ दुनिया के सब से महंगे वाहन, जूते और कपड़े भारत ही में सब से ज्यादा बिक रहे हैं,  यानी गरीब आमिर का फर्क लगातार बढ़ रहा है।

कानून व्यवस्था अत्ती विलम्बित, धीमी और भृष्ट होती जा रही है।  इस सब को सत्ता परिवर्तन तो  कहा जा सकता है, लेकिन व्यवस्था परिवर्तन, कदाचित नहीं कहा जा सकता।

  दरअसल भारतियों के ग़ुलाम बनने की हक़ीक़त, 1947 से पहले  एक कमीनी राजवाड़ाशाही, और उन के अत्यंत तुच्छ और नीच नौकरों की कहानी है, जिन्हें गलती से कुछ लोग सरदार  भी कहते हैं, (सरदार से यहां अभिप्राय सिक्ख धर्म के अनुयाइयों से नहीं,  बल्कि रजवाड़ों, अंग्रेजों या फ़िर आधुनिक भृष्टाचारी शाशकों के उन चाटुकार चमचों से है, जो रजवाड़ों और अंग्रेजों, दोनों ही के झाड़ूबरदार रहें हैं)।
तथा कथित आज़ादी के बाद  भारत की कहानी,  चरित्रहीन नेताओं और उन के नीच कुत्तों  द्वारा आमजन के शोषण की कहानी है, जो नकली आज़ादी के बाद भी विभिन्न राजनितिक पार्टियों पर किसी न किसी तरहं काबिज़ है, और सत्ता के शाही टुकड़े बटोरने में व्यस्थ हैं।

दरअसल इन राजाओं, नेताओं और और इन के सरदारों के सर और दस्तारें, दोनों ही,  पहले फारसियों, तुर्कों और मुग़लों के कदमों पे, और बाद में अंग्रेजों के कदमों पे पड़ी रहीं थी।

अब इन की दस्तारें और सर गाहेबगाहे बने, मौका-परस्त लीडरों और बड़े व्यपारिक घरानों के कदमों पे पड़ी रहती हैं। इन्होंने आज़ादी से पहले देश को गोरों को और  आज़ादी के बाद देश  बड़े  व्यपारियों को बेच दिया है।

इतना ही नहीं, इस सब के चलते भारत में एक ऐसी भृष्ट  और नकली लोकतान्त्रिक व्यवस्था का जन्म हुआ, जिस का बोझ आज तक हम उठा रहें हैं।
इतनी ही है,  बीते कल के भारत, और आज के भारत की व्यथा।

तो नतीजा यह निकलता है कि हमें, सत्ता परिवर्तन नहीं व्यवस्था परिवर्तन करना होगा, और वह व्यवस्था परिवर्तन केवल मात्र करंसी के नोटों का रंग बदलने से सम्भव नहीं।

इस के लिए राजशाही के सारे निशानों को मिटाना हो गा और एक सच्चे जनतन्त्र को स्थापित करना हो गा, जिस में न तो कोई पप्पू सिर्फ एक परिवार का पुत्र होने के कारण भारत का प्रधान मंत्री बनने के सपने देख सके, और न ही कोई फेंकू झूठ और जुमलों का सहारा ले कर इस महान देश का शाषक बन सके।

देश को केवल नारों और वादों की भोंडी राजनितिक बहस से आगे बढ़ के, गलियों में उतरना हो गा, और सदियों से चली आ रही भृष्ट व्यवस्था का अंत करना हो गा।

📚तत्त सत्त श्री अकाल🚩
✒गुरु बलवंत गुरुने ⚔

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